यह किसी सामान्य ज्योतिषी या योगी की राय नहीं थी बल्कि विश्व स्तर पर प्रसिद्ध ज्योतिर्विद और तंत्र सिद्ध, विश्वविजय पंचांग के संपादक एवं देश की प्रसिद्ध ज्योतिष पत्रिका ’’ज्योतिष्मती’’ के संपादक पं. हरदेव शर्मा की राय है जो उन्होंने 12 जनवरी 1974 को स्व. हरिदेव जोशी के पिता एवं जाने-माने ज्योतिर्विद स्व. पं. पन्नालाल जोशी को लिखे पत्र में व्यक्त की थी।
पं. हरदेव शर्मा त्रिवेदी ने 9 जनवरी 1974 से 6 अप्रेल 1974 की ज्योतिष्मती में भी इस बात का संकेत दिया था। इसमें तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों की विषमताओं और प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की योजना को धत्ता दिखाकर मुख्यमंत्री पद प्राप्त करने में सफल रहे स्व. जोशी के विलक्षण व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला गया है।
स्वयं हरदेव शर्मा त्रिवेदी ने इस दौरान जोशी को कुछ तांत्रिक प्रयोग बताए थे जिनमें कवच, कुंजिका स्तोत्र और अर्जुनकृत दुर्गास्तुति का नित्यपाठ स्वयं करने की सलाह जयपुर में एक दिसम्बर 73 की रात दी थी। इसके साथ ही स्व. जोशी के पिता स्व. पन्नालाल जोशी को भी सुझाव दिया था कि वे सार्ध नवदुर्गा प्रयोग कराएँ। यदि तमाम अनुष्ठान ठीक-ठीक हो गए होते तो स्व. हरिदेव जोशी हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री पद पर प्रतिष्ठित होते, जिनके लिए हरदेव शर्मा त्रिवेदी ने विश्वास जाहिर किया था कि श्री हरिदेव जोशी एक दिन नई दिल्ली में प्रधानमंत्री के निवास गृह में विराजेंगे।
पं0 हरदेव शर्मा त्रिवेदी स्व. जोशी को पग-पग पर सलाह देते रहे और एक-एक दिन की कुण्डली एवं ग्रहों की स्थिति से जोशी वाकिफ थे। इसके साथ ही त्रिवेदी अपने मित्र तथा सिद्ध ज्योतिर्विद, जोशी के पिता स्व0 पन्नालाल जोशी से अक्सर ज्योतिष, योग एवं तंत्र विषयों पर विचार-विमर्श करते रहते थे।
जाने-माने तंत्रविद स्व. देवर्षि पं. महादेव शुक्ल के निर्देशन में स्व. जोशी ने कई बार शतचण्डी, सहस्रचण्डी, लघुरूद्र, महारूद्र, महामृत्युन्जय सम्पुट सहित रूद्रार्चन तो कराया ही, खासकर त्रिपुर सुन्दरी अर्चना के निमित्त श्रीयंत्र पूजा, श्रीविद्या विधानम्, बगलामुखी साधना और तांत्रिक पद्धति से महत्वपूर्ण मानी गई तमाम साधनाओं में हिस्सा लिया। जब भी श्री जोशी बांसवाड़ा आते, वे निश्चित तौर पर बांसवाड़ा से सत्रह किलामीटर दूर त्रिपुरा सुन्दरी शक्तिपीठ जाते और पूजा-अर्चना करने के बाद ही दूसरा कोई काम शुरू करते। उनकी आस्था का ही परिणाम है कि त्रिपुरा सुन्दरी देवी तीर्थ के रूप में निरन्तर विकसित होता गया। यह शक्तिपीठ प्राचीनकाल में राजा-महाराजाओं के लिए शक्ति संचय एवं दैवी कृपा पाने का अनन्य आश्रय स्थल रहा है। कई बार स्व. जोशी ने पं. महादेव शुक्ल के निर्देशन में अपने सर्वविध कल्याण एवं विभिन्न बाधाओं से मुक्ति के लिए मन्दिर परिसर के बन्द कमरों में पीताम्बरा महायज्ञ एवं जपानुष्ठान कराया। विलक्षण व्यक्तित्व के साथ-साथ अक्सर होते रहने वाले अनुष्ठानों का ही असर रहा कि स्व. जोशी के शत्रु एक-एक कर परास्त होते चले गए और कइयों को मुँह की खानी पड़ी और स्व. जोशी के जीते जी वे सर न उठा सके। प्रायः तर चुनाव एवं संकट के दिनों में स्व. जोशी ने इन पुरातन प्रयोगों का सहारा लिया और यह सत्य ही है कि जो लोग जोशी का विरोध करते, वे चुनाव समीप आते ही उनके भक्त हो जाते। स्व. जोशी ही वह शख्सियत थी जो सन् 1977 के चुनाव में बहुमत के साथ विजयी हुए, जिस समय बड़े-बड़े नेताओं को धूल चाटनी पड़ी थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री की इच्छा जोशी को मुख्यमंत्री बनाने की नहीं थी मगर अपने चातुर्य और शक्ति से उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए चुन लिया गया। इस बारे में पं. हरदेव शर्मा त्रिवेदी ने लिखा है- ’’राजस्थान के छठे मुख्यमंत्री श्री हरिदेव जोशी बनाए गए हैं। प्रधानमंत्री की योजना को ’’जेतारमपराजित’’ करके वे चुने गए हैं।’’
तत्कालीन राजनैतिक कुटिलताओं का खाका खिंचते हुए वे आगे लिखते हैं- "प्रधानमंत्री की योजना थी कि पंजाब, हरियाणा के समान राजस्थान में कोई जाट नेता मुख्यमंत्री बनाया जाए। इस प्रकार जैसलमेर, गंगानगर से अमृतसर तक स्वेच्छाचारी जाट राज्य स्थापित हो जाएगा। राजनीतिक प्रभुता पाकर वह सदा इन्दिरा कांगे्रस को वोट देंगे। सरदार स्वर्णसिंह जाट साम्राज्य के स्वप्न दृष्टा हैं। इससे पहले इसके सरदार बलदेव सिंह थे। किन्तु हरियाणा के मुख्यमंत्री ने अपने उद्दण्ड व्यवहार, स्वेच्छाचारी शासन और अशिष्ट भाषा का व्यवहार कर अन्य वर्गो को असन्तुष्ट कर दिया। अतः राजस्थान में प्रधानमंत्री की इच्छा का व्याघात करने में गृहमंत्री दीक्षित और कांगे्रस अध्यक्ष डॉ. शंकरदयाल शर्मा अग्रणी हुए। श्री हरिदेव जोशी को प्रधानमंत्री के इन दो विश्वस्त सहयोगियों का आशीर्वाद और समर्थन प्राप्त था। फिर राजपूतों और कम्युनिस्टों ने भी श्री जोशी का समर्थन किया। ’’
’’ज्योतिष्मती’’ के इसी अंक में आगे लिखा गया है कि ’’जोशी सामन्तवाद के कट्टर विरोधी हैं, अतः ब्राह्मण, क्षत्रियों का उनको समर्थन मिला। श्रीमती चन्द्रेशखर की पहली रिपोर्ट को परराष्ट्रमंत्री सरदार स्वर्ण सिंह ने गलत बताया था। इस समय तक श्री रामनिवास मिर्धा का नाम तक सुनाई नहीं पड़ा था। सरदार स्वर्णसिंह आगे बढ़े और प्रधानमंत्री को कहकर श्री मिर्धा को उम्ीदवार बनाया। किन्तु प्रधानमंत्री ने पराजय की आशंका से खुलकर नहीं कहा कि ’’ श्री मिर्धा को चुनो।’’ अतः बलाबल का ज्ञान हो जाने पर श्रीमती गांधी ने रणक्षेत्र से लौटने में ही अपनी मानरक्षा मानी।’’
इसमें कहा गया है कि श्री जोशी अपराजित को जीतने वाले हैं। प्रधानमंत्री की यह पराजय भी उनके दो सहयोगियों का उनकी इच्छा का विरोध करना बताता है कि इन्दिरा कांगे्रस में दरारें पड़ने लगी हैं। पहली दरार का नाम है हरिदेव जोशीः यह भारत के रंगमंच पर नूतन शक्ति है। यदि राणाप्रताप का पथ श्री जोशी ने दृढ़ता से अपनाया और राजस्थान को अंगे्रजी शासन के अभिशाप से सर्वथा मुक्त कर जन नेता बनने में सफल हुए तो विश्वास करना चाहिए कि श्री हरिदेव जोशी एक दिन नई दिल्ली के प्रधानमंत्री के निवास गृह में विराजेंगे।
स्व. जोशी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हुए पत्रिका में कहा गया है कि उनकी संगठन शक्ति का ही परिणाम था कि सन् 1955 से 1971 तक सुखाड़िया मंत्रिमण्डल टिका रहा। सुखाड़िया मंत्रिमण्डल की शक्ति श्री जोशी थे। जैसे पाण्डवों की शक्ति भगवान कृष्ण थे। यह भी कहा गया कि यद्यपि श्री जोशी ’’नवयुग दैनिक’’ नहीं चला सके, फिर भी यह विफलता उनको आगे बढ़ने से न रोक सकी।
पं0 हरदेव शर्मा त्रिवेदी स्व. जोशी को पग-पग पर सलाह देते रहे और एक-एक दिन की कुण्डली एवं ग्रहों की स्थिति से जोशी वाकिफ थे। इसके साथ ही त्रिवेदी अपने मित्र तथा सिद्ध ज्योतिर्विद, जोशी के पिता स्व0 पन्नालाल जोशी से अक्सर ज्योतिष, योग एवं तंत्र विषयों पर विचार-विमर्श करते रहते थे।
जाने-माने तंत्रविद स्व. देवर्षि पं. महादेव शुक्ल के निर्देशन में स्व. जोशी ने कई बार शतचण्डी, सहस्रचण्डी, लघुरूद्र, महारूद्र, महामृत्युन्जय सम्पुट सहित रूद्रार्चन तो कराया ही, खासकर त्रिपुर सुन्दरी अर्चना के निमित्त श्रीयंत्र पूजा, श्रीविद्या विधानम्, बगलामुखी साधना और तांत्रिक पद्धति से महत्वपूर्ण मानी गई तमाम साधनाओं में हिस्सा लिया। जब भी श्री जोशी बांसवाड़ा आते, वे निश्चित तौर पर बांसवाड़ा से सत्रह किलामीटर दूर त्रिपुरा सुन्दरी शक्तिपीठ जाते और पूजा-अर्चना करने के बाद ही दूसरा कोई काम शुरू करते। उनकी आस्था का ही परिणाम है कि त्रिपुरा सुन्दरी देवी तीर्थ के रूप में निरन्तर विकसित होता गया। यह शक्तिपीठ प्राचीनकाल में राजा-महाराजाओं के लिए शक्ति संचय एवं दैवी कृपा पाने का अनन्य आश्रय स्थल रहा है। कई बार स्व. जोशी ने पं. महादेव शुक्ल के निर्देशन में अपने सर्वविध कल्याण एवं विभिन्न बाधाओं से मुक्ति के लिए मन्दिर परिसर के बन्द कमरों में पीताम्बरा महायज्ञ एवं जपानुष्ठान कराया। विलक्षण व्यक्तित्व के साथ-साथ अक्सर होते रहने वाले अनुष्ठानों का ही असर रहा कि स्व. जोशी के शत्रु एक-एक कर परास्त होते चले गए और कइयों को मुँह की खानी पड़ी और स्व. जोशी के जीते जी वे सर न उठा सके। प्रायः तर चुनाव एवं संकट के दिनों में स्व. जोशी ने इन पुरातन प्रयोगों का सहारा लिया और यह सत्य ही है कि जो लोग जोशी का विरोध करते, वे चुनाव समीप आते ही उनके भक्त हो जाते। स्व. जोशी ही वह शख्सियत थी जो सन् 1977 के चुनाव में बहुमत के साथ विजयी हुए, जिस समय बड़े-बड़े नेताओं को धूल चाटनी पड़ी थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री की इच्छा जोशी को मुख्यमंत्री बनाने की नहीं थी मगर अपने चातुर्य और शक्ति से उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए चुन लिया गया। इस बारे में पं. हरदेव शर्मा त्रिवेदी ने लिखा है- ’’राजस्थान के छठे मुख्यमंत्री श्री हरिदेव जोशी बनाए गए हैं। प्रधानमंत्री की योजना को ’’जेतारमपराजित’’ करके वे चुने गए हैं।’’
तत्कालीन राजनैतिक कुटिलताओं का खाका खिंचते हुए वे आगे लिखते हैं- "प्रधानमंत्री की योजना थी कि पंजाब, हरियाणा के समान राजस्थान में कोई जाट नेता मुख्यमंत्री बनाया जाए। इस प्रकार जैसलमेर, गंगानगर से अमृतसर तक स्वेच्छाचारी जाट राज्य स्थापित हो जाएगा। राजनीतिक प्रभुता पाकर वह सदा इन्दिरा कांगे्रस को वोट देंगे। सरदार स्वर्णसिंह जाट साम्राज्य के स्वप्न दृष्टा हैं। इससे पहले इसके सरदार बलदेव सिंह थे। किन्तु हरियाणा के मुख्यमंत्री ने अपने उद्दण्ड व्यवहार, स्वेच्छाचारी शासन और अशिष्ट भाषा का व्यवहार कर अन्य वर्गो को असन्तुष्ट कर दिया। अतः राजस्थान में प्रधानमंत्री की इच्छा का व्याघात करने में गृहमंत्री दीक्षित और कांगे्रस अध्यक्ष डॉ. शंकरदयाल शर्मा अग्रणी हुए। श्री हरिदेव जोशी को प्रधानमंत्री के इन दो विश्वस्त सहयोगियों का आशीर्वाद और समर्थन प्राप्त था। फिर राजपूतों और कम्युनिस्टों ने भी श्री जोशी का समर्थन किया। ’’
’’ज्योतिष्मती’’ के इसी अंक में आगे लिखा गया है कि ’’जोशी सामन्तवाद के कट्टर विरोधी हैं, अतः ब्राह्मण, क्षत्रियों का उनको समर्थन मिला। श्रीमती चन्द्रेशखर की पहली रिपोर्ट को परराष्ट्रमंत्री सरदार स्वर्ण सिंह ने गलत बताया था। इस समय तक श्री रामनिवास मिर्धा का नाम तक सुनाई नहीं पड़ा था। सरदार स्वर्णसिंह आगे बढ़े और प्रधानमंत्री को कहकर श्री मिर्धा को उम्ीदवार बनाया। किन्तु प्रधानमंत्री ने पराजय की आशंका से खुलकर नहीं कहा कि ’’ श्री मिर्धा को चुनो।’’ अतः बलाबल का ज्ञान हो जाने पर श्रीमती गांधी ने रणक्षेत्र से लौटने में ही अपनी मानरक्षा मानी।’’
इसमें कहा गया है कि श्री जोशी अपराजित को जीतने वाले हैं। प्रधानमंत्री की यह पराजय भी उनके दो सहयोगियों का उनकी इच्छा का विरोध करना बताता है कि इन्दिरा कांगे्रस में दरारें पड़ने लगी हैं। पहली दरार का नाम है हरिदेव जोशीः यह भारत के रंगमंच पर नूतन शक्ति है। यदि राणाप्रताप का पथ श्री जोशी ने दृढ़ता से अपनाया और राजस्थान को अंगे्रजी शासन के अभिशाप से सर्वथा मुक्त कर जन नेता बनने में सफल हुए तो विश्वास करना चाहिए कि श्री हरिदेव जोशी एक दिन नई दिल्ली के प्रधानमंत्री के निवास गृह में विराजेंगे।
स्व. जोशी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हुए पत्रिका में कहा गया है कि उनकी संगठन शक्ति का ही परिणाम था कि सन् 1955 से 1971 तक सुखाड़िया मंत्रिमण्डल टिका रहा। सुखाड़िया मंत्रिमण्डल की शक्ति श्री जोशी थे। जैसे पाण्डवों की शक्ति भगवान कृष्ण थे। यह भी कहा गया कि यद्यपि श्री जोशी ’’नवयुग दैनिक’’ नहीं चला सके, फिर भी यह विफलता उनको आगे बढ़ने से न रोक सकी।
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